Jammu & Kashmir,Crown of India unsafe in subversive Islamic Terrorism.
~by Jitendra Pratap Singh
जम्मू-कश्मीर राज्य भारत का मुकुटमणि है, धरती पर स्वर्ग के समान है, भारतीय संस्कृति इसकी गोद में पली है। अमरनाथ और मां वैष्णो देवी धाम पूरे देश की आस्था के केन्द्र हैं। जम्मू-कश्मीर का पाकिस्तान द्वारा अधिकृत भू-भाग आज भले ही भारत के सामान्य नागरिक की पहुंच से दूर हुआ हो लेकिन आज भी उसके मन के निकट है।
इस भावनात्मक संबंध के इतर जम्मू-कश्मीर के भारतीय संघ में विलय के साथ ही पूरे देश के साथ इसका एक संवैधानिक रिश्ता भी कायम हुआ। यहां चलने वाला कोई भी अलगाववादी प्रयास भारत की संप्रभुता को चुनौती है। भारतीय संसद ने जम्मू-कश्मीर राज्य के भारत का अभिन्न अंग होने की स्पष्ट घोषणा की है और पाकिस्तान व चीन द्वारा अवैध कब्जे वाले भू-भाग को वापस लेने का सर्वसम्मत संकल्प दोहराया है।
भू-राजनैतिक दृष्टि से जम्मू-कश्मीर देश के लिये सर्वाधिक महत्व का स्थान है। सदियों तक खाड़ी देशों तथा यूरोप व अफ्रीका के देशों तक सड़क मार्ग से होने वाले व्यापार के कारण भारत सोने की चिड़िया बना रहा तो इस सीमावर्ती राज्य की शक्ति कम होने पर यही दुनिया भर के आक्रमणकारियों के लिये मार्ग देता रहा। इसलिये निस्संदेह भारत की सुरक्षा की दृष्टि से चार देशों से लगने वाली इसकी सीमा का रणनीतिक महत्व भी सर्वविदित है। यही कारण है कि सीमा पर बैठे शत्रु इसे कब्जे में लेकर जहां भारत की सीमाओं को असुरक्षित बना रहे हैं वहीं देश के आर्थिक विकास को भी कुंठित कर देना चाहते हैं।
1947 में भारत विभाजन के समय भूल, भ्रम और षड्यंत्र का जो दुष्चक्र चला उसकी सबसे गहरी चोट जम्मू-कश्मीर को ही लगी। उस समय की गयी राजनैतिक त्रुटियों की कीमत गत छः दशकों से पूरा देश चुका रहा है। असंख्य सैनिकों और हजारों निर्दोष नागरिकों के प्राणों की बलि देने के बाद भी उस भूल का प्रायश्चित पूरा होता नहीं दिखता।
वर्ष 2010 की गर्मियों में हमने कश्मीर घाटी के कुछ हिस्सों में अलगाववादी हिंसा का एक नया ही रूप देखा था। मासूम बच्चों के हाथों में पत्थर थमा कर अलगाववादियों ने उन्हें सुरक्षा बलों की गोलियों के आगे धकेल दिया और उन मासूमों की लाशों पर अपनी अलगाववादी राजनीति को परवान चढ़ाने की कोशिश की।
दुर्भाग्य से देश का राजनैतिक नेतृत्व आज भी पिछली गलतियों से सबक लेने को तैयार नहीं है। एकबार पुनः वार्ताकारों का दल श्रीनगर घाटी में अलगाववादी आंदोलन को हवा देने वाले आधारहीन लोगों को ही पूरे जम्मू-कश्मीर का प्रतिनिधि मान कर उनसे संवाद कर रहा है। एक बार पुनः केन्द्र सरकार इन अलगाववादियों को तरह-तरह की साधन-सुविधाओं और पैकेज के बल पर कुछ समय के लिये खामोशी ओढ़ लेने के लिये मना कर रही है। एकबार पुनः जम्मू ही नहीं, कश्मीर के भी अनेक समुदायों और आम नागरिक के अधिकारों को बंधक बना कर यह अलगाववादी तत्व केन्द्र सरकार के साथ सौदा करने की तैयार कर रहे हैं। और एक बार पुनः केन्द्र सरकार देश की संप्रभुता से समझौता कर अलगाववादियों के सामने घुटने टेकने को तैयार दिखती है।
केन्द्र सरकार द्वारा जम्मू-कश्मीर में समस्या के अध्ययन और समाधान सुझाने के लिये गठित वार्ताकारों के दल ने जिस प्रकार राज्य में जाकर अलगाववादियों की मांगों के समर्थन में बयान देने और भारत के संविधान के लचीलेपन का उल्लेख करते हुए इसी में से आजादी का रास्ता निकल आने की बात की, उसने प्रारंभ से ही वार्ताकारों की सोच और दिशा का संकेत दे दिया था। गृहमंत्री ने अतीत में किये गये कुछ वादों को पूरा करने की बात कह कर संदेह को और गहरा कर दिया।
वार्ताकारों द्वारा जल्द ही रिपोर्ट सौंपे जाने का अनुमान लगाया जा रहा है। राजनैतिक प्रेक्षकों की नजरें भी इस रिपोर्ट और उस पर केन्द्र की प्रतिक्रिया पर टिकी हैं। ऐसे समय में जम्मू से 20 किलोमीटर दूर जगती में बनाये गये एक कमरे के जनता क्वार्टरों को कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास के अभियान के रूप में प्रचारित किया गया और उसके लोकार्पण के लिये प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह स्वयं वहां गये। उनमें से तैयार 12 कमरों की चाबियां प्रधानमंत्री ने कश्मीर के विस्थापितों को सौंपीं।
यहां उल्लेखनीय यह है कि कश्मीरी पंडितों का विस्थापन का दर्द कम करने गये प्रधानमंत्री ने इससे बड़ा तोहफा अलगाववादियों को यह कह कर दिया कि उनकी सरकार कश्मीर समस्या के हल के लिये पाकिस्तान से भी बात करने को तैयार है। वार्ताकारों की रिपोर्ट आने से पहले ही पाकिस्तान के साथ कश्मीर के मसले पर बात करने की चर्चा की भी क्या आवश्यकता थी। वह भी ऐसे मौके पर जब संसद के भीतर और बाहर भ्रष्टाचार के मुद्दे पर उनकी सरकार की जबरदस्त किरकिरी हो रही है। मुख्य सतर्कता आयुक्त की नियुक्ति में अपनी जिम्मेदारी स्वीकार करने के लिये उन्होंने सदन के स्थान पर जम्मू को चुना। इन सारे प्रसंगों से वे किसे और क्या संकेत देना चाहते हैं।
प्रश्न यह भी उठता है कि 1994 में तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व. नरसिम्हाराव के नेतृत्व में केन्द्र में कांग्रेस की सरकार ही सत्तारूढ़ थी जब सदन में पाकिस्तान से अपनी भूमि वापस लेने का सर्वसम्मत संकल्प लिया गया था। आज ऐसी कौन सी महत्वपूर्ण परिस्थिति उत्पन्न हो गयी हैं जिसमें सरकार को अपनी नीति बदलनी पड़ रही है। साथ ही संसद में लिये संकल्प के विरूद्ध यदि नीति में इतना महत्वपूर्ण परिवर्तन किया जा रहा है तो उसकी घोषणा का भी मंच संसद का सदन है। जम्मू की आमसभा में इस प्रकार की घोषणा के पीछे क्या तर्क हो सकता है यह तो अवश्य स्पष्ट किया जाना चाहिये।
आम तौर पर प्रधानमंत्री किसी भी मामले जिस प्रकार की चुप्पी साधते हैं उसे देखते हुए इसकी संभावना कम ही है कि उनकी ओर से कोई स्पष्टीकरण आयेगा। इसलिये इस घोषणा के पीछे के तर्क और भावना तो संभवतः तभी उजागर होंगे जब वार्ताकारों की रिपोर्ट पर केन्द्र सरकार की प्रतिक्रिया दिखाई देगी। लेकिन पूरे परिदृश्य को देखते हुए यह संभावना बलवती हो रही है कि परदे के पीछे अवश्य कुछ बेहद गंभीर चल रहा है। साथ ही यह आशंका भी बढ़ती जा रही है कि जो कुछ भी चल रहा है वह संभवतः राष्ट्र के लिये शुभ न हो।
इस भावनात्मक संबंध के इतर जम्मू-कश्मीर के भारतीय संघ में विलय के साथ ही पूरे देश के साथ इसका एक संवैधानिक रिश्ता भी कायम हुआ। यहां चलने वाला कोई भी अलगाववादी प्रयास भारत की संप्रभुता को चुनौती है। भारतीय संसद ने जम्मू-कश्मीर राज्य के भारत का अभिन्न अंग होने की स्पष्ट घोषणा की है और पाकिस्तान व चीन द्वारा अवैध कब्जे वाले भू-भाग को वापस लेने का सर्वसम्मत संकल्प दोहराया है।
भू-राजनैतिक दृष्टि से जम्मू-कश्मीर देश के लिये सर्वाधिक महत्व का स्थान है। सदियों तक खाड़ी देशों तथा यूरोप व अफ्रीका के देशों तक सड़क मार्ग से होने वाले व्यापार के कारण भारत सोने की चिड़िया बना रहा तो इस सीमावर्ती राज्य की शक्ति कम होने पर यही दुनिया भर के आक्रमणकारियों के लिये मार्ग देता रहा। इसलिये निस्संदेह भारत की सुरक्षा की दृष्टि से चार देशों से लगने वाली इसकी सीमा का रणनीतिक महत्व भी सर्वविदित है। यही कारण है कि सीमा पर बैठे शत्रु इसे कब्जे में लेकर जहां भारत की सीमाओं को असुरक्षित बना रहे हैं वहीं देश के आर्थिक विकास को भी कुंठित कर देना चाहते हैं।
1947 में भारत विभाजन के समय भूल, भ्रम और षड्यंत्र का जो दुष्चक्र चला उसकी सबसे गहरी चोट जम्मू-कश्मीर को ही लगी। उस समय की गयी राजनैतिक त्रुटियों की कीमत गत छः दशकों से पूरा देश चुका रहा है। असंख्य सैनिकों और हजारों निर्दोष नागरिकों के प्राणों की बलि देने के बाद भी उस भूल का प्रायश्चित पूरा होता नहीं दिखता।
वर्ष 2010 की गर्मियों में हमने कश्मीर घाटी के कुछ हिस्सों में अलगाववादी हिंसा का एक नया ही रूप देखा था। मासूम बच्चों के हाथों में पत्थर थमा कर अलगाववादियों ने उन्हें सुरक्षा बलों की गोलियों के आगे धकेल दिया और उन मासूमों की लाशों पर अपनी अलगाववादी राजनीति को परवान चढ़ाने की कोशिश की।
दुर्भाग्य से देश का राजनैतिक नेतृत्व आज भी पिछली गलतियों से सबक लेने को तैयार नहीं है। एकबार पुनः वार्ताकारों का दल श्रीनगर घाटी में अलगाववादी आंदोलन को हवा देने वाले आधारहीन लोगों को ही पूरे जम्मू-कश्मीर का प्रतिनिधि मान कर उनसे संवाद कर रहा है। एक बार पुनः केन्द्र सरकार इन अलगाववादियों को तरह-तरह की साधन-सुविधाओं और पैकेज के बल पर कुछ समय के लिये खामोशी ओढ़ लेने के लिये मना कर रही है। एकबार पुनः जम्मू ही नहीं, कश्मीर के भी अनेक समुदायों और आम नागरिक के अधिकारों को बंधक बना कर यह अलगाववादी तत्व केन्द्र सरकार के साथ सौदा करने की तैयार कर रहे हैं। और एक बार पुनः केन्द्र सरकार देश की संप्रभुता से समझौता कर अलगाववादियों के सामने घुटने टेकने को तैयार दिखती है।
केन्द्र सरकार द्वारा जम्मू-कश्मीर में समस्या के अध्ययन और समाधान सुझाने के लिये गठित वार्ताकारों के दल ने जिस प्रकार राज्य में जाकर अलगाववादियों की मांगों के समर्थन में बयान देने और भारत के संविधान के लचीलेपन का उल्लेख करते हुए इसी में से आजादी का रास्ता निकल आने की बात की, उसने प्रारंभ से ही वार्ताकारों की सोच और दिशा का संकेत दे दिया था। गृहमंत्री ने अतीत में किये गये कुछ वादों को पूरा करने की बात कह कर संदेह को और गहरा कर दिया।
वार्ताकारों द्वारा जल्द ही रिपोर्ट सौंपे जाने का अनुमान लगाया जा रहा है। राजनैतिक प्रेक्षकों की नजरें भी इस रिपोर्ट और उस पर केन्द्र की प्रतिक्रिया पर टिकी हैं। ऐसे समय में जम्मू से 20 किलोमीटर दूर जगती में बनाये गये एक कमरे के जनता क्वार्टरों को कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास के अभियान के रूप में प्रचारित किया गया और उसके लोकार्पण के लिये प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह स्वयं वहां गये। उनमें से तैयार 12 कमरों की चाबियां प्रधानमंत्री ने कश्मीर के विस्थापितों को सौंपीं।
यहां उल्लेखनीय यह है कि कश्मीरी पंडितों का विस्थापन का दर्द कम करने गये प्रधानमंत्री ने इससे बड़ा तोहफा अलगाववादियों को यह कह कर दिया कि उनकी सरकार कश्मीर समस्या के हल के लिये पाकिस्तान से भी बात करने को तैयार है। वार्ताकारों की रिपोर्ट आने से पहले ही पाकिस्तान के साथ कश्मीर के मसले पर बात करने की चर्चा की भी क्या आवश्यकता थी। वह भी ऐसे मौके पर जब संसद के भीतर और बाहर भ्रष्टाचार के मुद्दे पर उनकी सरकार की जबरदस्त किरकिरी हो रही है। मुख्य सतर्कता आयुक्त की नियुक्ति में अपनी जिम्मेदारी स्वीकार करने के लिये उन्होंने सदन के स्थान पर जम्मू को चुना। इन सारे प्रसंगों से वे किसे और क्या संकेत देना चाहते हैं।
प्रश्न यह भी उठता है कि 1994 में तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व. नरसिम्हाराव के नेतृत्व में केन्द्र में कांग्रेस की सरकार ही सत्तारूढ़ थी जब सदन में पाकिस्तान से अपनी भूमि वापस लेने का सर्वसम्मत संकल्प लिया गया था। आज ऐसी कौन सी महत्वपूर्ण परिस्थिति उत्पन्न हो गयी हैं जिसमें सरकार को अपनी नीति बदलनी पड़ रही है। साथ ही संसद में लिये संकल्प के विरूद्ध यदि नीति में इतना महत्वपूर्ण परिवर्तन किया जा रहा है तो उसकी घोषणा का भी मंच संसद का सदन है। जम्मू की आमसभा में इस प्रकार की घोषणा के पीछे क्या तर्क हो सकता है यह तो अवश्य स्पष्ट किया जाना चाहिये।
आम तौर पर प्रधानमंत्री किसी भी मामले जिस प्रकार की चुप्पी साधते हैं उसे देखते हुए इसकी संभावना कम ही है कि उनकी ओर से कोई स्पष्टीकरण आयेगा। इसलिये इस घोषणा के पीछे के तर्क और भावना तो संभवतः तभी उजागर होंगे जब वार्ताकारों की रिपोर्ट पर केन्द्र सरकार की प्रतिक्रिया दिखाई देगी। लेकिन पूरे परिदृश्य को देखते हुए यह संभावना बलवती हो रही है कि परदे के पीछे अवश्य कुछ बेहद गंभीर चल रहा है। साथ ही यह आशंका भी बढ़ती जा रही है कि जो कुछ भी चल रहा है वह संभवतः राष्ट्र के लिये शुभ न हो।
- Related reading : The making of Srinagar's teenage martyrs
- Jammu and Kashmir Terrorism Assessment - Year 2010
No comments:
Post a Comment